रूस-भारत दोस्ती के 70 साल – यह तो बस शुरूआत ही है
रूस और भारत के बीच राजनयिक रिश्ते भारत की आज़ादी की औपचारिक घोषणा होने से पहले ही बन गए थे। तब तक विंस्टन चर्चिल के उस कुख्यात फ़ुल्टन भाषण को एक साल पूरा हो चुका था, जिससे दुनिया में शीत-युद्ध शुरू हुआ था। इसके बाद आगे कई दशकों तक यही शीत-युद्ध दुनिया की राजनीति की मुख्य पहचान बना रहा। दुनिया दो गुटों में बँट गई थी। इसका असर सोवियत-भारतीय रिश्तों पर भी पड़ा।
भारत के नेतृत्व में तब गुटनिरपेक्ष आन्दोलन शुरू हुआ था और भारत इस आन्दोलन का एक प्रमुख नेता माना जाने लगा था। विश्व साम्राज्यवाद के विरुद्ध खड़ा सोवियत संघ तब भारत को अपने इस काम में अपना विश्वस्त सहयोगी समझता था। बीसवीं सदी के सातवें और आठवें दशक में सोवियत संघ और चीन के बीच आपसी रिश्ते अच्छे नहीं थे। दो देशों के बीच आपसी रिश्तों में बहुत-सी समस्याएँ थीं। तब भारत ने सोवियत संघ को एक ऐसी ताक़त माना था, जो चीन के साम्राज्यवादी इरादों को नियन्त्रित कर सकती है। इसलिए भी सोवियत संघ और भारत के बीच आपसी सहानुभूति और सहयोग की भावना पैदा हो गई थी।
रूस-भारत रिश्तों की शुरूआत कैसे हुई थी?
लेकिन अब हालात पूरी तरह से बदल चुके हैं। सोवियत गुट और सोवियत संघ का पतन हो चुका है। सोवियत पतन के बाद ऐसा लगने लगा था, जैसे ’इतिहास का अन्त’ हो गया है। दुनिया के मामलों में पश्चिम का प्रभुत्व छा गया था। सोवियत चीन रिश्ते भी बिगड़े हुए थे। लेकिन आज ये सब अतीत की बातें हो चुकी हैं। आज फिर दुनिया दो ध्रुवों में बँट चुकी है। अब दुनिया में एक-दूसरे के विरोधी दो ध्रुव हैं – अमरीका और चीन। विशेषज्ञ बहुत पहले ही इस बात को समझ गए थे कि चीन अब अमरीका का प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी देश है। लेकिन औपचारिक रूप से चीन लम्बे समय तक ख़ुद को एक विकसित देश मानने की जगह विकासशील देश बताते हुए इस तथ्य से इनकार करता रहा।
परन्तु डोनाल्ड ट्रम्प के अमरीका के राष्ट्रपति बनते ही सारी बातें खुलकर सामने आ गईं। अमरीका के नए राष्ट्रपति ने साफ़-साफ़ चीन को ही अमरीका का मुख्य प्रतिद्वन्द्वी घोषित कर दिया। अब अमरीका की नई सरकार की सारी गतिविधियाँ यह दिखाती हैं कि वह इस नए शक्ति-सन्तुलन को स्वीकार करके ही सारे क़दम उठा रही है। यहाँ तक कि सीरिया पर अमरीकी मिसाइल हमला भी तब किया गया, जब चीन के राष्ट्रपति शी चिन फिंग डोनाल्ड ट्रम्प से मुलाक़ात करने के लिए अमरीका गए हुए थे। यह इस बात का संकेत है कि यह हमला रूस को अपनी ताक़त दिखाने के लिए नहीं, बल्कि चीन को अमरीकी ताक़त दिखाने के लिए किया गया था। उसके बाद चीन को अपनी ताक़त दिखाने के लिए अमरीका ने अपने नौसैनिक युद्धपोतों के बेड़े को उत्तरी कोरिया की ओर रवाना कर दिया।
इस परिस्थिति में दुनिया की दूसरी प्रभावशाली ताक़तों के सामने यह सवाल मुँह उठाकर खड़ा हो गया कि इस नई भू-राजनैतिक स्थिति में वे ख़ुद को कैसे पेश करें। जबकि उसी समय दुनिया की दोनों प्रमुख ताक़तें इस कोशिश में लगी हुई हैं कि कैसे दुनिया के ज़्यादा से ज़्यादा प्रभावशाली देशों का समर्थन अपने-अपने पक्ष में जुटा सकें।
पिछले हफ़्ते पेइचिंग के सिन्हुआ विश्वविद्यालय के अन्तरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान के प्रमुख और एक प्रसिद्ध चीनी राजनीतिक विश्लेषक यान जू तोंग मस्क्वा (मास्को) आए हुए थे। रूस में उन्होंने एक बड़े अख़बार को इण्टरव्यू दिया और कुछ सार्वजनिक व्याख्यान भी दिए। उनकी सभी बातों का मुख्य सार यह था कि रूस और चीन को आपस में सैन्य-राजनीतिक गठबन्धन कर लेना चाहिए। चीन में इस बात को अक्सर लोग पसन्द नहीं करते हैं। रूस में भी इस तरह के विचार को सन्देह की दृष्टि से देखा जाता है। लेकिन मीडिया में व्यापक स्तर पर इस तरह की बात सामने आना अपने आप में महत्वपूर्ण है।
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और, 12 अप्रैल को अमरीका के विदेशमन्त्री रेक्स टिलरसन ने मस्क्वा की यात्रा की। अपनी इस यात्रा के दौरान वे लगातार यह कोशिश करते रहे कि रूस को इस बात के लिए तैयार कर लिया जाए कि वह बशर असद का समर्थन करना छोड़ दे। इसके बदले रूस पर अमरीका की पूरी अनुकम्पा रहेगी। लेकिन अमरीका के इस प्रस्ताव पर अमल करना रूस के हित में नहीं होगा क्योंकि बशर असद सरकार को समर्थन न देने का मतलब यह होगा कि रूस की सीमाओं के पास आतंकवादियों का जमघट लग जाएगा।
वैसे भी अमरीका ने यह नहीं बताया है कि ’अमरीकी अनुकम्पा’ से उसका क्या मतलब है। इसके अलावा अब तक का रूसी-अमरीकी रिश्ते का इतिहास दिखाता है कि अमरीकी ’मिठाई’ का लालच नहीं करना चाहिए। लेकिन रेक्स टिलरसन की इस यात्रा से एक बात साफ़ हो गई कि अमरीका यह तो बिल्कुल भी नहीं चाहता है कि रूस अमरीका के प्रतिद्वन्द्वियों के पाले में हो। इसीलिए अमरीका हर तरह से रूस को इस खेल से बाहर करना चाहता है।
वास्तव में अब दुनिया में ऐसी हालत पैदा हो गई है कि रूस, भारत, ईरान, वियतनाम, इण्डोनेशिया, असियान के देश और बहुत से दूसरे देश एकजुट होकर ताक़त का एक नया वैकल्पिक केन्द्र बन सकते हैं, जो दुनिया की दो प्रमुख ताक़तों के ख़िलाफ़ नहीं होगा, बल्कि जिसका उद्देश्य नई क़िस्म की एक नई दुनिया बनाना होगा, जो न ’तेरे’ पक्ष में होगी और न ’मेरे’ पक्ष में होगी, बल्कि सभी के हित में होगी। यह दुनिया खेल में सब-कुछ खोकर और गँवाकर हार जाने की जगह सभी को जिताने के पक्ष में होगी। शायद आज यही दुनिया की सबसे फ़ौरी ज़िम्मेदारी है। और, इस तरह की दुनिया बनाने में यूरेशिया की दो महाशक्तियों के रूप में रूस और भारत मुख्य भूमिका निभा सकते हैं।
शीत-युद्ध के ज़माने में चीन अपनी विदेशनीति की तुलना उस बुद्धिमान बन्दर से किया करता था, जो पहाड़ की चोटी पर बैठा हुआ है और यह देख रहा है कि कैसे घाटी में दो बाघ एक-दूसरे से लड़ रहे हैं। चीन अब आगे बन्दर की भूमिका में नहीं रह सकता है। दूसरे देशों के लिए भी यह ज़रूरी हो गया है कि वे दूर बैठकर सिर्फ़ देखते ही न रहें, बल्कि इसके लिए अपनी ताक़त को एकजुट करें कि एक-दूसरे से लड़ने वाले बाघ कहीं सारी दुनिया को ही बरबाद न कर दें।
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