चीन और रूस के बीच युद्ध का इतिहास
लाल सेना की शक्ति की परख
चीनी पूर्वी रेलवे को लेकर हुई लड़ाई को सीमा-विवाद से जोड़कर देखा जा सकता है। सोवियत रूस और चीन के बीच 1924 में हुए समझौते के अनुसार चीनी पूर्वी रेलवे मार्ग तथा उसके आस-पास के इलाके को दोनों देशों की सँयुक्त सम्पत्ति माना जाता था।
इस रेलमार्ग का अपना ख़ुद का ध्वज था, जिसे नीचे सोवियत संघ के लाल ध्वज और ऊपर चीन के पंचरंगी ध्वज को मिलाकर बनाया गया था। पश्चिम में इस युद्ध के बारे में यह धारणा व्यक्त की जाती है कि बीसवीं सदी के तीसरे दशक के उत्तरार्ध में यानी 1920 के दशक में सोवियत रूस के रुख के कारण चीनी पूर्वी रेलवे का मुनाफ़ा कम हो गया और वह लाभदायक नहीं रही, जिसके कारण चीन के लोग बेहद नाख़ुश हुए।
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सोवियत संघ में तब उस युद्ध का यह कारण बताया जाता था कि पश्चिमी साम्राज्यवादियों के उकसावे पर मंचूरिया का शासक झांग शूलियांग और चीन व मंचूरिया की सीमा पर स्थित शहरों में बसे रूसी क्रान्ति के विरोधी रूसी लोग (जो ख़ुद को श्वेत सेना से जुड़ा मानते थे) यह परखने को आतुर थे कि रूस की लाल सेना कितनी मज़बूत है। उल्लेखनीय है कि चीनी पूर्वी रेलवे झांग शूलियांग के नियन्त्रण वाले प्रदेश से होकर ही गुज़रती थी और उन दिनों उस प्रदेश के ऊपर चीन की सरकार का कोई नियन्त्रण नहीं था।
रूस और चीन के बीच हुई लड़ाइयों में चीन की ओर के सैनिकों की संख्या हमेशा ही बहुत ज़्यादा रही है। मंचूरिया ने सोवियत रूस से लड़ने के लिए 3 लाख से भी अधिक सैनिकों को युद्ध के मैदान में उतार दिया था, जबकि रूस की ओर से केवल 16 हजार सैनिकों ने ही उस युद्ध में भाग लिया था। हालाँकि सोवियत सेना के पास चीनी सेना के मुक़ाबले कहीं बेहतर हथियार थे और सोवियत सेना ने लड़ाकू विमानों का भी ख़ूब इस्तेमाल किया, जिसके कारण सोवियत सेना चीनियों पर भारी पड़ी।
12 अक्टूबर 1929 को रूस द्वारा किए गए हवाई हमले के कारण चीन के 11 में से पाँच युद्धपोत नष्ट हो गए। चीन के बाक़ी युद्धपोतों को पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा। उसके बाद रूस के सुदूर पूर्वी सैन्य बेड़े के युद्धपोतों से रूसी सैनिक मंचूरिया में उतरे। लाल सेना की सहायता से रूसी तोपख़ाने ने चीन के लहासुसू शहर पर अधिकार कर लिया। किन्तु दुश्मन को पराजित करने के बावजूद सोवियत सैनिक जल्दी ही सोवियत भूमि पर वापस लौट गए। 30 अक्टूबर 1929 को शुरू हुए फ़ुग्दिनस्कया अभियान के दौरान भी ऐसा ही हुआ। रूस के सुदूर पूर्वी सैन्य बेड़े के आठ युद्धपोतों पर सवार रूसी सैनिकों ने सोंगुआ नदी के मुहाने पर तैनात चीन के सुनगारी बेड़े का काम-तमाम कर दिया। उसके बाद रूस की थल सेना की दूसरी डिवीजन की दो रेजिमेण्टों ने चीन के फ़ूजिन शहर पर अधिकार कर लिया। सोवियत सेना 2नवम्बर 1929 तक वहाँ डटी रही और फिर सोवियत भूमि पर लौट गई।
19 नवम्बर तक लगातार चले इस युद्ध से दुश्मन को यह विश्वास हो गया कि चाहे जोश-ख़रोश की बात हो या सैन्य-तकनीक की, सोवियत सेना उससे मीलों आगे है। अनुमान है कि इस लड़ाई में चीन के लगभग दो हज़ार सैनिक मारे गए थे और 8 हजार से अधिक सैनिक घायल हुए थे। रूस की लाल सेना के कुल मिलाकर 2 सौ 81 आदमी मारे गए थे।
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सोवियत लोगों ने अपने स्वभाव के अनुरूप युद्धबन्दियों के साथ बड़ा मानवीय बरताव किया और उन्हें ’रूसी-चीनी भाई-भाई’ का भरोसा दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि चीन के एक हज़ार से भी ज़्यादा चीनी युद्धबन्दियों ने रूस छोड़कर वापिस चीन न लौटने का फ़ैसला किया और वे सोवियत संघ में ही रहने लगे।
इस युद्ध के तुरन्त बाद मंचूरिया ने सोवियत संघ के सामने शान्ति का प्रस्ताव रखा। 22 दिसम्बर 1929 को दोनों के बीच एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार सोवियत संघ और चीन पहले की ही तरह सँयुक्त रूप से चीनी पूर्वी रेलवे का इस्तेमाल करने वाले थे।
चीन-सोवियत सीमा-युद्ध। बड़ी लड़ाई के कगार पर
हालाँकि यह लड़ाई रूस और चीन के बीच हुई अनेक झड़पों में सबसे बड़ी लड़ाई नहीं थी, लेकिन ऐतिहासिक नज़रिए से और भूराजनीतिक परिणामों की दृष्टि से यह लड़ाई शायद सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई थी। विश्व की इन दोनों बड़ी ताक़तों के बीच इससे पहले कभी इतने बड़े स्तर पर युद्ध की सम्भावना सामने नहीं आई थी, जिसके परिणाम दोनों ही पक्षों के लिए बड़े विनाशकारी हो सकते थे। चीन-सोवियत सीमा-युद्ध में सोवियत संघ के 58 सीमारक्षक मारे गए। विभिन्न अनुमानों के अनुसार मरने वाले चीनी सैनिकों की संख्या 5 सौ से लेकर 3 हजार के बीच रही। वैसे, चीन आज भी इसकी जानकारी देने से परहेज करता है।
हालाँकि, जैसा कि रूस के इतिहास में अक्सर होता आया है, युद्ध में रूस को जो बढ़त मिली थी, उसे शान्ति-वार्ता के दौरान गँवा दिया गया। इसके बाद 1969 के शरदकाल में दोनों देशों के बीच बातचीत हुई, जिसमें यह तय किया गया कि चीनी और सोवियत सीमारक्षक उसुरी नदी के तटों पर रहेंगे और इनमें से कोई भी पक्ष दमानस्की द्वीप में प्रवेश नहीं करेगा। इसका सीधा-सा मतलब यह था कि दमानस्की द्वीप चीन को हस्तान्तरित कर दिया जाएगा। फिर 1991 में दमानस्की द्वीप कानूनी तौर पर चीन को हस्तान्तरित कर दिया गया।
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झ़लनश्कोल झील के लिए लड़ाई
चीन-सोवियत सीमा-युद्ध के कुछ ही महीने बाद चीनियों ने एक बार फिर रूस की ताक़त को परखने की कोशिश की। 13 अगस्त 1969 को तड़के साढ़े पाँच बजे चीन के डेढ़ सौ सैनिकों ने कज़ाख़स्तान की झलनश्कोल झील के सोवियत इलाके पर हमला कर दिया। वैसे यह आक्रमण इस कड़ी का अन्तिम हमला साबित हुआ।
सोवियत सीमारक्षकों ने अन्तिम क्षण तक लड़ाई से बचने और बातचीत करने का कोशिश की। लेकिन चीन नहीं माना और चीनियों ने पहाड़ी पर मोर्चे बनाकर खाइयों की खुदाई शुरू कर दी। रदनिकोवया तथा झ़लनश्कोल चौकियों पर तैनात रूसी सीमारक्षकों ने पहाड़ी पर हमला कर दिया। इस हमले में उन्होंने पाँच बख़्तरबन्द गाड़ियों का इस्तेमाल किया और कुछ ही घण्टों के भीतर पहाड़ी को चीनी सैनिकों से आज़ाद करा लिया। सोवियत सीमारक्षकों ने चीनी सैनिकों को पीछे धकेल दिया। इस लड़ाई में दो सोवियत सीमारक्षक मारे गए, जबकि चीन के 19सैनिक खेत रहे।
इस लड़ाई को एक महीना भी नहीं गुज़रा था कि 11 सितम्बर 1969 को पेइचिंग में रूस के तत्कालीन प्रधानमन्त्री अलिक्सेय कसीगिन और झाऊ एन्लाई के बीच मुलाकात हुई। दोनों ने रूस-चीन सीमा पर झड़पों को रोकने पर सहमति जताई। उसके बाद से दोनों देशों के बीच तनाव में कमी आने लगी।
रूस और चीन के बीच आज 4 हजार 2 सौ 9 दशमलव 3 किलोमीटर लम्बी सीमा फैली हुई है, जो ज़्यादातर ज़मीनी सीमा ही है। कहीं-कहीं पर नदियाँ भी दोनों देशों के बीच की सीमा को तय करती हैं। हालाँकि रूस और चीन के बीच कोई आपसी समुद्री सीमा नहीं है।
यह मूल लेख की संक्षिप्त प्रस्तुति है। इस लेख अपने पूरे आकार में ’रूस्सकया सिम्योर्का ’ नामक रूसी भाषी पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
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