रूस में विजय दिवस पर हर साल सैनिक-परेड क्यों होती है?
आज जब समाजशास्त्री रूसी जनता के बीच इस सवाल पर जन-सर्वेक्षण करते हैं कि वे रूस के इतिहास की किस घटना पर सबसे ज़्यादा गर्व करते हैं तो पिछले 20 साल से उन्हें सिर्फ़ एक ही जवाब मिलता है — 1941 से 1945 तक हुए महान् देशभक्तिपूर्ण युद्ध पर ही उन्हें सबसे ज़्यादा नाज़ है। इसलिए इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि नाज़ीवादी जर्मनी पर विजय का दिन यानी 9 मई का दिन ही रूस में एक सबसे बड़े जनोत्सव के रूप में मनाया जाता है। यह जन-उत्सव विभिन्न नज़रियों वाले लोगों को एकजुट करता है। 2016 में विजय दिवस पर रूस में आयोजित विभिन्न कार्यक्रमों में क़रीब ढाई करोड़ लोगों ने भाग लिया था यानी रूस के हर छठे निवासी ने इन कार्यक्रमों में हिस्सेदारी की थी।
विजय दिवस के इस बड़े रूसी त्यौहार के दो सबसे बड़े प्रतीक चिह्न हैं — विजय-दिवस की शाम को की जाने वाली आतिशबाज़ी और द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग लेने वाले पूर्व सैनिकों को शुभकामनाओं के साथ भेंट किए जाने वाले कॉरनेशन के लाल सुर्ख़ फूल। हर साल इस परेड में भाग लेने वाले हज़ारों सैनिक लाल चौक पर बिछे ईंटों के खड़ंजे पर मार्च करते हुए निकलते हैं। इस परेड में ही ’अरमाता’ की तरह के आधुनिकतम रूसी टैंकों जैसी नवीनतम रूसी सैन्य-तकनीक का प्रदर्शन भी किया जाता है। इस परेड में रूस के रक्षामन्त्री सलामी लेते हैं। आजकल सिर्गेय शयगू रूस के रक्षामन्त्री हैं। सन् 2015 में रूस की सरकार ने इस परेड के आयोजन में 93 करोड़ 30 लाख रुपए और पिछले साल 30 करोड़ 50 लाख रुपए खर्च किए थे।
विजय दिवस परेड की रिहर्सल का वीडियो
रूस में आयोजित सैनिक परेडें हमेशा बड़ी भव्य होती हैं। यूरोप में और अमरीका में द्वितीय विश्व-युद्ध की समाप्ति की तारीख़ को भव्य ढंग से नहीं मनाया जाता। सितम्बर 2015 में चीन ने भी द्वितीय विश्व-युद्ध की समाप्ति की 70वीं जयन्ती बड़ी धूमधाम से मनाई थी। लेकिन चीन में ऐसा सिर्फ़ एक बार ही किया गया था, जबकि रूस में हर साल भव्य स्तर पर सैनिक परेड का आयोजन किया जाता है। ऐसा क्यों है?
हमेशा से ऐसा नहीं होता रहा है
आपको शायद यह बात अजीब लगे, लेकिन यह बात सच है कि सोवियत सत्ताकाल में विजय दिवस परेडें इतनी ज़्यादा शानदार नहीं होती थीं, जबकि दूसरे विश्व-युद्ध में जीत सोवियत संघ को ही मिली थी। तब सैनिक परेडें कभी-कभी ही होती थीं। मस्क्वा के लाल चौक पर पहली सैन्य परेड 1945 में दूसरे विश्व-युद्ध में विजय मिलने के तुरन्त बाद आयोजित की गई थी। तभी सोवियत सैनिकों ने लेनिन की समाधि के आगे नाज़ीवादी जर्मनी के झण्डे लाकर फेंके थे। लेकिन इसके बाद 20 साल तक फिर कोई परेड आयोजित नहीं की गई।
इतिहासकार दिनीस बबिचेन्का लिखते हैं — इओसिफ़ स्तालिन और उनके बाद सोवियत संघ की सत्ता संभालने वाले निकिता ख्रुषोफ़ को यह डर था कि महान् देशभक्तिपूर्ण युद्ध में विजय दिलाने वाले सैन्य कमाण्डर देश में अधिक प्रभावशाली हो जाएँगे। इसीलिए ये दोनों नेता दूसरे विश्व-युद्ध में जीतने वाले फ़ौजियों की उपलब्धियों की तरफ़ बिल्कुल ध्यान नहीं देते थे और उनकी उपेक्षा-सी किया करते थे। 1965 तक सोवियत संघ में विजय दिवस के दिन सार्वजनिक छुट्टी भी नहीं हुआ करती थी।
1966 से 1982 तक सोवियत संघ के नेता रहे लिअनीद ब्रेझनिफ़ ही वह पहले सत्ताधारी थे, जिनके शासनकाल में विजय-दिवस व्यापक राजकीय स्तर पर मनाया जाने लगा। लेकिन उनके सामने भी सैनिक परेडें सिर्फ़ विशेष जयन्ती वर्षों में ही होती थीं।
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सोवियत संघ में आख़िरी सैन्य-परेड 1990 में हुई थी। फिर नए रूस की स्थापना होने के बाद शुरू के कुछ सालों में एक भी परेड नहीं हुई। 1995 में परेडें फिर से होने लगीं और सन् 2000 के बाद इन परेडों की शान बढ़ती चली गई।
इनका महत्व — एकजुटता
इतिहासकार दिमित्री अन्द्रेयिफ़ ने रूस-भारत संवाद से बात करते हुए कहा — आज रूस में विजय-दिवस परेड की ज़रूरत जनता को एकजुट करने वाले उपकरण के रूप में है, जो देश को एकता के सूत्र में बाँधती है। विजय दिवस एक ऐसा जन-त्यौहार बन गया है, जो देश में राष्ट्रीय एकता और आपसी सहमति की भावना पैदा करता है।
विजय दिवस के अवसर पर आयोजित की जाने वाली परेड, आतिशबाज़ी और अमर दस्ता जैसे कार्यक्रम रूस की जनता की सामूहिक स्मृति में छिपी एकता की भावना को उभारते हैं। रूसी जनता की निजी पहचान को सुरक्षित रखने के लिए आज इस स्मृति का उपयोग किया जाता है। इसीलिए विजय दिवस के अवसर पर सारे रूस में व्यापक स्तर पर विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, जिनमें सैनिक परेड भी एक कार्यक्रम है।
रूसी ब्लॉगर इल्या वरलामफ़ ने लिखा है — मस्क्वा के निवासी कभी-कभी इस तरह की शिकायतें भी करते हैं कि वे कभी अपनी आँखों से परेड नहीं देख पाएँगे। इतनी भीड़ होती है कि परेड स्थल पर पहुँचना भी मुश्किल होता है। शायद इस परेड का आयोजन टेलीविजन-प्रसारण के लिए ही किया जाता है। नहीं तो, परेड देखने वाले दर्शकों के बीच आम मस्क्वावासी दिखाई क्यों नहीं देते? वरलामफ़ की एक और शिकायत यह है कि विजय दिवस द्वितीय विश्व-युद्ध में अपनी जान देने वाले लोगों का स्मृति दिवस भी है। उनके स्मृति-दिवस पर सरकार अपनी सैन्य-ताक़त का प्रदर्शन क्यों करती है।
लेकिन रूसी जनसर्वेक्षण केन्द्र ’लिवादा केन्द्र’ द्वारा कराए गए जनसर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि 96 प्रतिशत रूसी जनता को रूस में होने वाली परेड बेहद पसन्द है। 24 वर्षीया मस्क्वावासी यूल्या कवल्योवा ने बताया — मुझे याद है, मैं बचपन में हर साल अपने मम्मी-पापा को लेकर परेड देखने जाया करती थी। परेड में भाग लेने वाले सैनिकों के एक साथ उठते-गिरते क़दमों को देखकर मेरी आँखें उत्सुकता से भर उठती थीं। उनकी ’हुर्रा’ की सामूहिक ध्वनि सुनकर मेरा मन गुनगुनाने लगता था और सैन्य तकनीकों, टैंकों और तोपों को देखकर मन में गर्व की भावना पैदा हो जाती थी। मुझे लगता था कि ऐसी मजबूत सेना हमारी सुरक्षा कर रही है तो फिर किस बात का डर है। सैनिक परेड के आयोजन की परम्परा एक अच्छी परम्परा है। इसे आगे भी जारी रखना चाहिए।
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